Thursday 2 June 2016

कहानी

एक मार्मिक कहानी :-
# किसान
दो तीन वर्षों से सूखा हर बार फसलों की निर्मम हत्या कर दे रहा था .. गेहूं की गुड़धानी और चावल की पिन्नियों को मिठाई बताकर जो गरीब किसान हमेशा अपने बच्चों को बहला लेते थे उन्हे इस वर्ष वो भी जुटा पाना दूभर हो रहा था !
मैं उस वर्ष एक 'ग्रामीण बैंक' के लिए ऋण राशि संकलक का कार्य करता था ..
किसानों का हाल बहुत बुरा था .. बड़े किसान फिर भी जैसे तैसे रोटी दाल चला रहे थे लेकिन छोटे किसान रोटी जुटा लेते तो दाल ना मिलती और दाल कमा लाते तो रोटी ना कमा पाते!
उन किसानों पर बैंक का ऋण बढ़ता जा रहा था और ब्याज पर ब्याज चढ़ता जा रहा था .. बीस हजार का ऋण पैंतीस हजार हो चुका था और पैंतीस हजार पचपन का !
किसानों को मैं ऋण अदा करने हेतु समझाने के लिए क्षेत्र के गांवों मे निकलता तो था परंतु उनको कुछ समझा नही पाता था ...
रोज मैं खुद ही कुछ ना कुछ समझ के आ जाता .. हर बार सोच मे डूबा घर लौट आता था .. अक्सर किसी घर मे कोई बुजुर्ग किसान हाथ जोड़कर खड़ा सामने गिड़गिड़ाने लगता .. तो किसी घर मे मृत हो चुके मुखिया की विधवा स्त्री पल्लू फैलाकर कुछ दिनों की मोहलत की मांग करती !
कोई किसान घर की खाली हो चुकी बखारी/डेहरिया (अनाज रखने की जगह) ले जाकर दिखाता तो कोई औरत अपने बच्चों की उस थाली की ओर इशारा कर दिखाती जिसमे उसके बच्चे मोटी रोटी को नमक और प्याज के साथ लील रहे होते !
रोज कुछ ना कुछ ऐसा होता ही था जो मेरी भावनाओं मे एक ऐसा भंवर पैदा कर देता कि निराशा से भरा मैं घर आकर रात-रात भर उसी के बारे मे सोचता रहता !
दिनभर तेज धूप मे भागदौड़ , व्यथा , निराशा और रात रातभर कोरी आंखों चिंता मे जागने से मेरी हालत रोगियों सी हो गई थी !
कभी दिनभर भूख नही लगती और कभी एकदम से याद आता अरे आज तो कुछ खाया ही नही !
बैग मे खाना , नमकीन या बिस्किट के पैकेट , ठंडे पानी की बोतल आदि ऐसे ही पड़े रहते और मैं किसानों के घर बताशे , गुड़ या शक्कर के चार दाने खाकर ही लोटा भर पानी पीकर तृप्त हो लेता था ... शाम को घर आने पर जब भाभी बैग से धुलने के लिए टिफिन निकालतीं तो शिकायत करतीं कि भैया आपने आज फिर कुछ नही खाया पिया !
वो जून का पहला सप्ताह था और मैं रोज की तरह ही घर से काम पर निकल पड़ा था .. रोज क्षेत्र और गांव मैं रात मे ही चुन लेता था कि कल किस गांव मे जाना है और उस गांव मे जिनके ऊपर ऋण होता उनके नामों की सूची लेकर निकल पड़ता था !
अभी सुबह के 9 ही बजे थे मगर शहर से बाहर निकलते ही सूर्यदेव ने मुझे अपना पराक्रम और मेरी औकात दिखानी शुरू कर दी !
हेलमेट के भीतर पसीना चुचुहाने लगा था .. बैग के पीछे छुपी पीठ पर भी पसीने ने अपने आगमन की सूचना दे दी थी .. और मानो मेरे मन से कह दिया था कि बेटा आज तुझे तेरे मुझसे बचाव के सारे संसाधन का उनकी भी औकात से परिचय कराऊंगा !
मैं लगातार बाइक चलाता जा रहा था .. गर्मी और धूप प्राणों को चूसे ले रही थी ..
अब 10 बजने को था और मैं उस निर्धारित गांव से 7-8 किलोमीटर की दूरी पर था .. हेलमेट के भीतर से पसीना निकलकर मेरी गर्दन पर बह रहा था .. जितना चेहरा खुला हुआ था उसपर लपट तड़ातड़ लप्पड़ बरसा रही थी .. शर्ट भीगकर पीठ से चिपक गई थी !
खेत खलिहानों मे सन्नाटा सांय सांय कर रहा था .. सफेद और बंजर धरती नमक उगल रही थी .. जगह जगह पीले फूलों वाली कंटीली झाड़ियां उग आई थी और जहां तहां लपट के थपेड़ों से धूल उड़कर शिशुचक्रवातों का रूप लेकर नाच रही थी !
इस माहौल ने मुझे बुरी तरह चिढ़ा दिया था .. मैं मन ही मन कभी खुद को गालियां बकता तो कभी नौकरी को कोसता बाइक चलाता हुआ उस गांव पहुंच गया ...!
गांव ....
ऐसे तो नही होते ..
ना जाने वो कैसा गांव था .. ?
ना कोई रौनक .. ना चौपाल .. ना हरियाली और ना ही कोई चहल पहल .. !
50-60 झोपड़ियों और कच्ची दीवारों पर टिके छप्परों के उस समूह को गांव कहना मुझे अजीब सा लग रहा था .. !
लेकिन ....
काम तो काम था ... करना ही था ... इसलिए मिट्टी की एक चारदीवारी मे लगे लाल मिट्टी से पोते हुए लकड़ी के दरवाजे के सामने बाइक रोककर मैने लिस्ट चेक की और दरवाजे से लटकती सांकल को खटखटाया ... गांव मे जितनी झोपड़ियां थीं उससे अधिक लिस्ट मे नाम .. इसलिए ये निश्चित था कि हर झोपड़ी पर कर्ज होगा ही!
खैर ..
दरवाजा खुला .. उस घर की बहू थी वो शायद जो सूखे से सूखकर कांटा हो गई थी .. घूंघट निकाले , सांवले दुबले हाथों मे 2-4 हरी चूड़ियां पहने वो दरवाजा खोलकर सकपकाई सी मेरे सामने चुपचाप खड़ी थी ..
पहले तो मैने उससे घर के मुखिया का नाम पूछा मगर फिर याद आया कि ये तो इस घर की बहू लग रही है ये अपने ससुर , पति या जेठ का नाम तो लेगी ही नही इसलिए मैं लिस्ट से एक नाम पढ़ने लगा ..
"शिवलोचन का घर है ये ?"
"नाही साहिब .. उनकर तौ गांव के कतई दक्खिन ओर है !"
"नेकपाल?"
"उनकर ऊ सामने वाला है!"
"घुरई ?"
"हां ! यहै है !"
"कहां हैं बुलाइए जरा कुछ बात करनी है !"
"बप्पा तौ खेतै पर रहत हैं .. पेड़ेन मा अमियां लागी हैं तौ रखवरी करत हैं !"
उसकी इस बात को सुनकर मन और खीझ गया .. इतनी गर्मी मे इनके घर तक आओ और फिर खेत खलिहान मे टहलो .. ऐसा लगता है जैसे ये किसान कोई सेठ साहूकार हैं और मैं खुद इनसे पैसे उधार मांगने आया हूं !
इसके अतिरिक्त ये इसकी बहू इतनी असिष्ट है कि एक गिलास पानी तक ना पूछा !
मैने झुंझलाकर उससे पूछा ..
"खेत किधर है ?"
मेरे इस सवाल पर उसने उंगली उठाकर दूर खेत मे नजर आती आम के दो पेड़ों की फुनगियों की ओर इशारा कर दिया और नमस्ते साहिब बोलकर भीतर चली गई !
मैं अब और अधिक गुस्से मे तमतमाया उन पेड़ों की ओर चल दिया ..!
उस बंजर बियाबान मे वो दो आम के हरे भरे और फले हुए पेड़ ऐसे लग रहे थे जैसे गुड्डू रंगीला के अविराम बजते फूहड़ गीतों के बीच किसी पवन सिंह ने "ए धानी जिया छनछनावेला छागल .. नथुनिया पागल कइले बा" गीत गा दिया हो !
एक खेत के किनारे आम के दो पास पास खड़े घने और बड़े पेड़ों की छाया मे फूस की एक झोपड़ी बनी थी जिसके बाहर एक मूंज से बुनी हुई बंसखटी पर एक पिंजर पर चिपकी हुई खाल वाला बुजुर्ग बैठा था .. बंसखटी भी बुजुर्ग की तरह ही बीच से झूल गई थी और उसकी मूंज जमीन से आलिंगन करने को बढ़ रही थी .. नजदीक ही एक नल लगा हुआ था जिसपर गौरैया का एक जोड़ा बैठा हत्थे पर अपनी चोंच रगड़ रहा था .. नजदीक ही नल से बहकर जाने वाले पानी की नाली मे एक कुतिया जीभ निकाले बैठी थी .. पेड़ों पर तोते अमियां कुतर रहे थे .. कुछ ही दूरी पर दो मैले कुचैले बच्चे खेल रहे थे जिन्होने निश्चित ही किसी बड़े की कमीजें पहन रखी थीं और दो मे से किसी भी कमीज मे पूरी बटने नही थीं .. वो कमीजें बस उनके बदनों पर फंसी हुई थीं और घुटनो तक उनको ढंक रखा था !
काफी देर के बाद 'सजीव जीवन' देखकर मन कुछ ठीक हुआ था .. बुजुर्ग ने मुझे देखा और मोतियाबिंद से धुंधलाई और गड्ढे मे गड़े हुए दूधिया कंचों सी आंखों को बड़ा कर पहचानने का प्रयास करने लगे .. उनको अधिक परेशान देखकर मैने ही बातचीत शुरू की ...
"नमस्ते बाबा .. मैं ग्रामीण बैंक से आया हूं !"
"नमस्ते बाबू जी .. आबौ बईठो !"
उन्होने कांपते हाथों को कोहनियों तक जोड़ने का प्रयास करते हुए कहा !
मुझे ये थोड़ा अजीब लगा इसलिए मैने माहौल को थोड़ा हल्का करना चाहा ..
"नही बाबा .. मैं ऐसे ही ठीक हूं .. वैसे भी आपकी खटिया कमजोर है मैं बैठ गया तो टूट जाएगी !"
मुझे लगा था कि इससे शायद वो हंसेंगे लेकिन वो एक फीकी सी मुस्कुराहट भर देकर फिर चुप हो गए ..!
हां! मुस्कुराते समय उनके मुंह मे से कई दशकों से बीड़ी का धुआं झेलकर पीले हो चुके इक्का दुक्का दांतों ने जरूर मुझे खीसें निपोरकर चिढ़ाया !
वहां खेल रहे दोनो बच्चे मेरे पास आकर खड़े हो गए और मेरी ओर जिज्ञासा भरी नजरों से देखने लगे ... उनको लगा होगा कि शायद कोई नाते रिश्तेदार आया है जो बाजार से कुछ ना कुछ खाने की चीज तो लाया ही होगा !
इस बार बुजुर्ग ने कहा ....
"कहौ साहिब .. का फरमान भेजा है सरकार और ऊके सरकारी बैंक ने ?"
"आप पर 45,600 रुपिया बाकी है .. उसको जमा करवा दीजिए वरना लिस्ट अमीन के पास जाएगी तो अमीन आ जाएगा और जमानत के तौर पर लगे खेत को बंधक कर लेगा !"
मैने सूची से ऋण की रकम पढ़ते हुए उनसे कहा !
वो कुछ देर किसी सोच मे डूबे रहे और फिर बोले ...
"अच्छा बाबू साहिब अगर जइसे हम मर जाई तौ का ई रकम हमारे लरिकन के सिर मढ़ जाई ?"
अजीब सा सवाल था ये लेकिन फिर भी मैने दो टूक सा जवाब दिया ..
"जी बिल्कुल ! जो भी आपका खेत बरतेगा उसको रकम चुकानी होगी !"
"30,000 का लोन करवाए रहन साहिब .. 22,000 रुपिया दलाल हमरे हाथ मा दीन्हेस ... अब हम 45,600 जमा करी .. करिब जमा .. जैसा हाकिम का आदेश होइही .. करिब !"
अजीब लगा मुझे सुनकर कि 30,000 का लोन ... उसमे से 8,000 दलाल की दलाली ... बैंक का ब्याज ... फिर ब्याज पर ब्याज चढ़ता चढ़ता बना 45,600 .. हद है ये तो !
मौसम की मार ... सूखे की जलन .. धूप की चुभन ... चुहचुहाता पसीना ... चिपचिपाती देह ... भूखे नंगे ललचाते बच्चे ... महानगरों मे मजदूरी की तलाश मे भटकते गांव के नौजवान ... खेती किसानी को जिन्दा रखने के लिए पल पल मरते खपते बुजुर्ग ... दलाली खाते दलाल और ब्याज खाती बैंक और सरकार !
किसान जो सबको खिलाता है उसके घर मे फांके .. उसकी सुहागिल बहू की कलाइयों मे दो-दो , तीन-तीन चूड़ियां और दलालों के निकलते तोंद .. कैसा चक्र है ये जीवन का .. कैसी नियति है ये ?
भक ...
ये क्या सोच रहे हो वरुण ... तुम भी तो उसी की कमाई खाते हो .. फिर तुमको क्या .. तुम कोई विधाता थोड़ी ना हो जो सबका भाग्य बदल दोगे ... तुम्हारा काम था बताना .. बता दिया अब घर चलो !
मैं कुछ देर सोच मे डूबा ऐसे ही खड़ा रहा .. नल पे पानी पिया और उनका अभिवादन कर चलने को हुआ तो उन्होने फिर आवाज दी ...
"बाबू साहिब दुई चार अमिया लै जाबौ .. चटनी के लै !"
मैंने हामी भरी तो उन बच्चों मे से ही एक झट से पेड़ पर चढ़ा और 10-12 अमियां तोड़कर गिरा दीं .. दूसरे ने उनको इकट्ठा कर मुझे दे दिया !
मैं उन्हे लेकर बैग मे रखने लगा तो टिफिन और पानी की बोतल पर नजर पड़ी .. अचानक कुछ याद आया तो मैने बच्चों से पूछा ...
"खाना खाओगे तुम लोग ?"
इतना सुनना था कि उनकी आंखों मे एक लालच उभर आया .. लेकिन वो कुछ उत्तर देते उससे पहले एक बार उन बुजुर्ग की ओर देखा और उनके हामी भरने के बाद झटपट दौड़कर झोपड़ी से एक चिटकी किनारियों वाली थाली उठा लाए !
मैने टिफिन खोलकर उसमे से फाॅइल पेपर मे लिपटी पूड़ियां उनके हाथों मे पकड़ा दीं और छोले की सब्जी को उनकी थाली मे पलट दिया !
दोनो मुस्कुराते हुए उन बुजुर्ग के पास भागकर बैठ गए जाकर और बुजुर्ग सहित एक एक पूड़ी पकड़कर खाने लगे !
मैं उसदिन और किसी से नही मिला बस चुपचाप घर आ गया ...!
घर आकर अमियां माताजी के सुपुर्द कर मैने उनसे सारी कहानी कह सुनाई और देर रात तक सोच मे डूबा डूबा ही सो गया !
सुबह उठा तो दर्द से दिमाग फटा जा रहा था .. बदन मे सुइयां चुभ रही थीं .. बुखार गला घोंट रहा था ... और नब्ज कलाई फाड़कर बाहर आने को उछल रही थी !
लपट और गर्मी ने अपना काम कर दिया था .. कई दिनों तक काम पर ना जा सका ... हां बीच मे एक शाम को बैंक मैनेजर का फोन आया था कि किस किस ने पैसा जमा कर दिया ... उसमे से एक नाम
# घुरई का भी था !
माताजी को लग रहा था कि मुझे बुखार मेरी अतिभावुकता और घुरई वाली घटना के कारण आया है इसलिए ठीक होने के बाद जब मैं सुबह काम पर जाने के लिए तैयार होने लगा तो माताजी ने आकर पूछा ..
"कितनी अमियां लगी होंगी तुम्हारे घुरई के पेड़ों मे ?"
"जी कुछ 5-7 हजार की तो होंगी ही .. आप क्यों पूछ रही हैं ?"
"ये लो 10,000 सारी खरीद लेना उधर जाना तो !"
"लेकिन करेंगी क्या ... इतनी तो बहुत होंगी ... नाते रिश्तेदारों मे बंटवाएंगी क्या ? और फिर अपने बाग मे भी तो हैं ?"
"अरे ! जाओ खरीद लेना .. तुड़वाना मत .. पैसे दे देना और कहना जब जरूरत होगी तुड़वा लेंगे !"
मैं जानता था कि अब कुछ कहने से कोई फायदा नही है इसलिए चुपचाप पैसे लिए और आज फिर घुरई के गांव की ओर निकल पड़ा ...!
उनके घर जने के बजाय मैं सीधा गांव के किनारे से उन पेड़ों की ओर गया लेकिन .. लेकिन ... ये क्या ?
उन पेड़ों के कटे गोल लट्ठे ट्रैक्टर की ट्राॅली मे लादे जा रहे थे ... वो दोनो बच्चे आज भी वहीं खड़े थे ... वही कपड़े पहने हुए ... हां ! मगर आज उनकी आंखों मे आंसू भी थे ... दो तीन खेत पार करने के बाद एक खेत मे कटींले पौधे मे फंसा वो फाॅइल पेपर लपट के संग फड़फड़ा रहा था और धूप की तीव्रता के साथ चांदी सा चमक रहा था ... गौरैया और तोते कहीं दिख नही रहे थे .. कुतिया ... आज दोपहर मे ही आसमान की ओर मुंह उठाकर विलाप कर रही थी और वो खेत ... वो खेत ऐसा लग रहा था जैसे गांव की एकमात्र सुहागन की लाल मांग मे लगा सिंदूर एकदम से धुल गया हो .. उसकी चूड़ियां टूट गई हों और जरी वाली लाल चुनरी सफेद कफन नुमा साड़ी बन गई हो !
मुझसे अब वहां खड़ा नही हुआ जा रहा था .. मैं बाइक लेकर सीधे घुरई के घर के बाहर रुका जाकर .. !
एक अजीब सा सन्नाटा फैला था यहां भी .. पहले से भी गहरा और सांय सांय चिल्लाता .. दरवाजा खटखटाने पर फिर उसी जानी पहचानी छवि ने दरवाजा खोला ..
"जी वो घुरई ....!"
"पइसा तौ जमा कर दए उन्ने !"
उसने सिसकते हुए जवाब दिया !
"हां ! पता है मुझे , लेकिन वो हैं कहां , कुछ काम था उनसे ?"
"नाई रहे इस दुनिया मे .. आप आए थे .. वाई सांझ को अमिया के सहित पेड़ बेच दए , अगली सबेर बैंक के रुपिया जमा करे और सांझ को पौढ़ के सोए तो भोर फिर उठेई नाई !"
धांय से लगी आकर उसकी ये बात और चुभती हुई हृदय को चीरती निकल गई !
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कानों मे किसी ने पिघला पारा भर दिया हो !
मैं कुछ देर यूं ही निर्जीव सा सिर झुकाए खड़ा रहा .. फिर भावनाओं पर काबू करते हुए जेब से वो दस हजार निकालकर मैने उसकी ओर बढ़ाए ... वो कुछ कहती उससे पहले ही मैं बोल पड़ा ...
"बैंक की ओर से घुरई को छूट मिली थी .. वही देने आया था !"
उसने पैसे ले लिए और मैं चुपचाप घर लौट आया ...!
अगले दिन फिर से मेरे सिर पर गीली पट्टी पड़ी थी और कार्यालय की मेज पर मेरा इस्तीफा !

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